सरकारी नौकरी कर रहे कर्मचारियों के लिए एक बड़ी खबर सामने आई है। सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक हालिया फैसले में कहा है कि सरकारी सेवा में प्रमोशन प्राप्त करना कोई मौलिक या संवैधानिक अधिकार नहीं है। इस फैसले ने सरकारी कर्मचारियों के उस विश्वास को झटका दिया है जिसमें वे प्रमोशन को एक अधिकार के रूप में मानते आए हैं।
अब प्रमोशन का दावा करना नहीं होगा आसान
सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया है कि संविधान में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है जो यह गारंटी देता हो कि किसी भी सरकारी कर्मचारी को निश्चित समय बाद प्रमोशन मिलेगा। इस फैसले के अनुसार, सरकार ही यह तय करेगी कि किन पदों पर प्रमोशन देना है और इसके लिए क्या मानदंड होंगे। इससे यह स्पष्ट हो गया है कि अब सरकारी कर्मचारी प्रमोशन के लिए दावा करने के बजाय सरकार द्वारा निर्धारित नियमों के अधीन होंगे।
कोर्ट का फैसला गुजरात के न्यायिक चयन मामले पर आधारित
यह ऐतिहासिक फैसला गुजरात राज्य में जिला न्यायाधीशों की नियुक्ति प्रक्रिया से जुड़े एक केस पर आधारित है। इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने साफ कहा है कि सरकार को यह अधिकार है कि वह किसी भी पद के लिए प्रमोशन के नियम खुद तय करे और इसे संवैधानिक या मौलिक अधिकार के रूप में नहीं माना जा सकता।
कार्यपालिका को नीतियां बनाने की पूरी आज़ादी
सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि कार्यपालिका को यह पूरी स्वतंत्रता है कि वह किस पद के लिए प्रमोशन की जरूरत माने और किस तरह की प्रक्रिया तय करे। यह नीतिगत फैसला सरकार के अधिकार क्षेत्र में आता है और न्यायपालिका इसमें हस्तक्षेप नहीं कर सकती जब तक कि कोई नियम संविधान का उल्लंघन न करता हो।
संविधान में प्रमोशन के लिए नहीं है कोई तय मानदंड
अदालत ने अपने आदेश में यह भी उल्लेख किया है कि संविधान में कहीं भी यह नहीं लिखा है कि प्रमोशन के लिए कोई निश्चित मानदंड या प्रक्रिया होनी चाहिए। इसका मतलब यह हुआ कि सरकार प्रमोशन की योग्यता, प्रक्रिया और समयावधि को अपने हिसाब से तय कर सकती है।
सुप्रीम कोर्ट ने सीनियरिटी और मेरिट के संतुलन की बात कही
फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने यह भी बताया है कि प्रमोशन के लिए सीनियरिटी और मेरिट दोनों के बीच संतुलन जरूरी है। सिर्फ वरिष्ठता को आधार बनाना जरूरी नहीं है, बल्कि कर्मचारी की कार्यक्षमता और प्रदर्शन को भी उतना ही महत्व देना चाहिए। कोर्ट ने दोनों तरीकों – सीनियरिटी कम मेरिट और मेरिट कम सीनियरिटी – को वैध माना है।
अदालत ने समीक्षा से किया इनकार, लेकिन संविधान के तहत निगरानी संभव
सुप्रीम कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया है कि प्रमोशन नीति की समीक्षा करना न्यायपालिका का कार्य नहीं है। यह सरकार की नीति का हिस्सा है। हालांकि यदि प्रमोशन की नीति में संविधान के अनुच्छेद 16 यानी समान अवसर के अधिकार का उल्लंघन पाया गया, तब ही अदालत हस्तक्षेप कर सकती है।
सरकार को नियम तय करने की पूर्ण स्वतंत्रता
फैसले के अनुसार, सरकार को यह अधिकार है कि वह किस प्रकार की प्रमोशन नीति लागू करना चाहती है। इसमें यह तय करना भी शामिल है कि किस कर्मचारी को किस योग्यता के आधार पर और कब प्रमोशन दिया जाए। सरकार अपने प्रशासनिक अनुभव और ज़रूरतों को देखते हुए नियम निर्धारित करने के लिए पूरी तरह स्वतंत्र है।